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साझेदारी
का सामान्य परिचय :
दो या दो से अधिक लोग मिलकर कोई लाभपूर्ण व्यापार करते हैं तथा लाभ को आपस में बांटते है साझेदारी कहलाता है .
साझेदारी
का अर्थ :
भारतीय साझेदारी अधिनियम एक अक्टूबर 1932 को जम्मू कश्मीर को छोड़कर सम्पुर्ण भारत में लागू हुआ था . इस अधिनियम से पुर्व साझेदारी से सम्बंधित प्रावधान भारतीय संविदा (अनुबंध) अधिनियम 1872
में दिए गए थे . साझेदारी से आशय व्यावसायिक संगठन के ऐसे स्वरुप से है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति स्वेच्छा से किसी वैधानिक व्यापार को चलने के लिए सहमत होते हैं . व्यवसाय में पूँजी लगाते हैं, प्रबंधकीय योग्यता का सामूहिक प्रयोग करते हैं तथा लाभ को आपस में बांटते हैं .
भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 4 के अनुसार
साझेदारी का जन्म अनुबध से होता है किसी स्थिति के कारण नहीं
साझेदारी की परिभाषा (
भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 4 के
अनुसार “साझेदारी उन व्यक्तियों
के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध हैं जो किसी व्यवसाय के लाभों को बांटने के लिया सहमत हुए हैं जिसका संचालन उन सभी के द्वारा या उन सभी की और से किसी एक के द्वारा किया जाता है.”
साझेदारी
की आवश्यकता :
सीमित पूँजी, सीमित प्रबंध, क्षमता व चातुर्य अनिश्चित अस्तित्व आदि एकाकी व्यापार की कमियों को दूर करने के लिए साझेदारी का उद्भव हुआ पूँजी कार्यकुशलता अनुभव की पूर्ति के लिए साझेदारी की स्थापना की जाती है
साझेदारी की विशेषताएं :
निम्न विशेषताएं होती हैं-
दो
या दो से अधिक व्यक्तियों
का होना साझेदारी
हमेशा कम से कम दो व्यक्तिओं(जो अनुबंध की क्षमता रखते हो के मध्य होगी
भारतीय
अनुबंध अधिनियम
1872
के अनुसार एक अवयस्क पागल या नायालय द्वारा अयोग्य घोषित व्यक्ति
साझेदार
नहीं बन सकता भविष्य में साझेदार
दो से कम होने पार साझेदारी
समाप्त हो जाएगी कंपनी अधिनियम
की धारा 464
के अनुसार एक साझेदारी
में साझेदारों की
अधिकतम संख्या वह होगी जो निर्धारित
की जाएगी, जो 100
से ज्यादा नहीं होगी लेकिन कंपनी( विविध नियम 2014
के नियम 10
के अंतर्गत
यह संख्या 50 तक
सीमित कर दी गयी है
साझेदारो
के मध्य समझौता या अनुबंध होना साझेदारों
के मध्य लिखित या मौखिक समजौता होना आवश्यक है भारतीय
अनुबंध अधिनियम
की धारा 5
के अनुसार “साझेदारी
का जन्म अनुबध से होता है किसी परिस्थिति
से नहीं”
लाभों
का विभाजन साझेदारी
का उद्येश्य
लाभ कमाना होता है परोपकारी
संस्था साझेदारी
नहीं कर सकती साझेदारों
का लाभ में हिस्सा होना आवश्यक है अवयस्क को हानि में हिस्सा होना आवश्यक नहीं है
व्यवसाय
का होना साझेदारी
का उद्देश्य
वैध व्यवसाय
करके लाभ कमाना होना चाहिए
व्यवसाय
का सञ्चालन
सभी के द्वारा या उन सभी की और से किसी एक के द्वारा होना कानूनी
रूप से व्यवसाय
का संचालन में सभी साझेदार
भाग ले सकते हैं परन्तु सहमति से कोई एक भी संचालन कर सकता है
अधिनियम-
साझेदारी
व्यवसाय
भारतीय साझेदारी
अधिनियम,
1932
द्वारा संचालित
किया जाता है
असीमित
दायित्व-
प्रत्येक
साझेदार
का दायित्व
असीमित होता है अन्य शब्दों में साझेदार
के समस्त दायित्व
के लिए प्रत्येक
साझेदार संयुक्त
और पृथक रूप से उत्तरदायी
होता है
पृथक
अस्तित्व
नहीं- इसका अर्थ है फर्म से सम्बंधित
सभी अनुबंध फर्म पर लागू होने के साथ प्रत्येक
साझेदार
पर भी लागू होते हैं
साझेदारी के प्रकार :
1. दायित्व के अनुसार
A. सीमित दायित्व साझेदारी(
इस साझेदारी
में साझेदारों
का दायित्व
सीमित होता है.
B. असीमित दायित्व साझेदारी
इस साझेदारी
में फर्म के दायित्वों
के लिए सभी साझेदार
असीमित रूप से उतरदायी
होते हैं.
2. समयानुसार साझेदारी
A. निश्चितकालीन साझेदारी
वह साझेदारी
जो एक निश्चित
समय के लिए की जाए .
B. अनिशिचित्कालीन साझेदारी
वह साझेदारी
जिसमें निश्चित
समय नहीं होता.
3. उद्देश्यानुसार साझेदारी
A. ऐच्छिक साझेदारी
साझेदार
यदि निश्चित
अवधि के बाद भी साझेदारी
जारी रखना चाहे तो तो ऐच्छिक साझेदारी
होती है.
B. विशेष साझेदारी
विशेष कार्य या उद्देश्य
के लिए स्थापित
साझेदारी
4. वैधता के अनुसार साझेदारी
A. वैध साझेदारी
प्रचलित
नियमों के अनुसार स्थापित
साझेदारी
B. अवैध साझेदारी
नियमों के विरुद्ध
की गयी साझेदारी
अवैध होती है. इसके निम्न कारण होते हैं.
1.
स्थापना
का उद्देश्य
गैरकानूनी
हो
2.
साझेदारों
की संख्या दो से कम हो जाए या 50 से अधिक हो जाए
3.
यदि व्यापर लोक नीति या अंतररास्ट्रीय
नीति के विरुद्ध
हो
4. कोई साझेदार
शत्रु देश का नागरिक हो
साझेदारी संलेख
भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 5 के अनुसार “ साझेदारी का जन्म अनुबध से होता है किसी स्थिति के कारण नहीं “. यह लिखित
अनुबंध ही साझेदारी
संलेख कहलाता है.
साझेदारी संलेख में सम्मिलित मदें
फर्म का नाम व पता
साझेदारों के नाम व पते
साझेदारी व्यवसाय की प्रकृति व कार्यक्षेत्र
लाभ विभाजन अनुपात
साझेदारों की पूँजी
पूँजी पर ब्याज के सम्बन्ध में प्रावधान
आहरण की राशि
आहरण पार ब्याज के सम्बन्ध में प्रावधान
फर्म की लेखा पुस्तकें रखने की विधि
साझेदारों को देय वेतन, बोनस कमीशन आदि
खातों का अंकेक्षण
साझेदारी की अवधि
साझेदारों के ऋण व उस पर ब्याज की दर
पूँजी खाता रखने की विधि
साझेदारों के अधिकार, कर्तव्य व दायित्व
विवादों के निपटारे की विधि
नए साझेदार के प्रवेश पर प्रावधान
नए साझेदार के प्रवेश , अवकाश ग्रहण करने, मृत्यु होने व लाभ विभाजन अनुपात में परिवर्तन होने ख्याति का मूल्यांकन व लेखांकन
किसी साझेदार के अवकाश ग्रहण करने या मृत्यु पार हिसाब के निपटारे की विधि
फर्म के समापन की विधि व परिस्थिति
फर्म के समापन पर हिसाब के निपटारे की विधि
किसी साझेदार के दिवालिया होने पर गार्नर बनाम मर्रे नियम का प्रयोग
साझेदारी संलेख के अभाव में लागू होने वाले नियम
लाभ विभाजन अनुपात बराबर होगा
पूँजी पर ब्याज नहीं दिया जाएगा
आहरण पर ब्याज नहीं लिया जाएगा
साझेदारों को पारिश्रमिक वेतन कमीशन नहीं दिया जाएगा
साझेदारों के ऋणों पर ब्याज – 6 % वार्षिक की दर से दिया जाएगा
प्रत्येक साझेदार को व्यापर संचालन व प्रबंध में हिस्सा लेने का अधिकार होगा
प्रत्येक साझेदार को फर्म की पुस्तकें देखने, निरीक्षण करने व प्रतिलिपि लेने का अधिकार होगा
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खातों के प्रकार प्रत्येक लेनदेन में दो पहलू या पक्ष होते हैं। खाता-बही (Ledger) में प्रत्येक पक्ष का एक खाता बनाया जाता है। खाता (Account) खाता बही (लेजर) का वह भाग है जिसमें व्यक्ति, वस्तुओं अथवा सेवाओं के सम्बन्ध में किए हुए लेनदेनों का सामूहिक विवरण लिखा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक खाते की स्थिति का पता लग जाता है कि वह खाता लेनदार (Creditor) है तथा देनदार (Detor)। दोहरी प्रणाली के अनुसार स्रोतों में लेनदेनों को लिखने के लिए खातों के वर्गीकरण को जानना आवश्यक है। खातों के प्रकार व्यक्तिगत खाते (Personal accounts) 1. एक व्यक्ति का खाता, (जैसे राम का खाता, मोहन का खाता, पूंजी खाता) 2. फर्म का खाता (जैसे गुप्ता ब्रदर्स, मै. गणेश प्रसाद राजीव कुमार) अव्यक्तिगत खाते (Impersonal accounts) वास्तविक खाते (real accounts) माल खाता (Goods account), रोकड खाता (cash account) मशीन खाता भवन खाता आदि नाममात्र खाते (nominal accounts) आय के खाते प्राप्त ब्याज खाता कमीशन खाता, आदि व्यय के खाते वेतन खाता किराया खाता मजदूरी खाता ब्याज खाता आदि व्य
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